7. भीष्म-प्रतिज्ञा (भीष्म की प्रतिज्ञा)
इस पाठ में एक पिता के प्रति अपने बेटे के त्याग को दर्शाया गया है।
प्रथमं दृश्यम्
स्थान राज-भवनम्
(उदासीन: चिन्तानिमग्नश्च देवव्रतः प्रविति)
देवव्रत:- (स्वगतम्) अहो, न जाने केन कारणेन अध मे पितृचरणा: चिन्ता विलोक्यन्ते । कि तेषां काचित् शारीरिकी पीड़ा अथवा किमपि मानसिक अमात्यसमीपं गत्वा पितुः शोककारणं पृच्छामि । पितुश्चिन्ताया अपनयनं तस्य पर प्रधानं कर्तव्यं भवति ।
पिता स्वर्गः पिता धर्मः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥
धिक् तं सुतं यः पितुरीप्सितार्थ क्षमोऽपि सत्र प्रतिपादयेद् यः।
जातेन किं तेन सुतेन काम पितुर्न चिन्ता हि समुद्धरेद् यः॥
द्वितीयः दृश्यम्
स्थानम्- अमात्यभवनम्
अमात्य:- (आयान्तं भीष्मं दृष्ट्वा) अहो, राजकुमारः देवव्रतः। आगम्यताम अलंक्रियतामासनमिदम् ।
(देवव्रतः प्रणम्य उपविशति) राजकुमार! कुतो नाम एतस्मिन् असमये अत्र आगमनं भवत:)
देवव्रतः – अमात्यवर्याः। अद्य किमपि नूतनं वृत्तं दृष्ट्वा विस्मितमानस: तन्समाधानाय भवत्समीप समुपागतोऽस्मि।
अमात्यः – (साश्चर्यम्) तत् किमिति ?
देवव्रतः – विद्यमानेष्वपि समस्तेषु सुखसाधनेषु न जाने अद्य केन हेतुना मम पितृपादाः दुखिताः चिन्ताकुलचेतसश्च प्रतीयन्ते । तदेतस्य कारणमहं ज्ञातुमिच्छामि, ज्ञात्वा च तस्य प्रतीकारं कर्तुमिच्छामि।
अमात्यः – उचितमेवैतद् भवादृशानामार्यपुत्राणाम् ।
देवव्रत: – तद् यदि भवन्तः एतस्य कारणं जानन्ति तर्हि तत्प्रकाशनेन अनुग्रहीतव्योऽस्मि।
अमात्यः – राजकुमार । बाढं जानामि । एतस्य कारणं तु आर्यपुत्र एवास्ति। देवव्रतः – (साश्चर्यम्) अहमेव कारणम् ? हा धिक्। तत् कथमिव ? स्पष्टं निगद्यताम्।
अमात्यः – राजकुमार! एकस्मिन् दिने महाराजः वनाविहारखेलायां यमुनानदीतीरे परिभ्रमति स्म। तदानीं दूरादेव स्वशरीरसुगन्धेन निखिलमपि वनं सवासयीन्त एका सत्यवती नाम्नी परमसुन्दरी घीवरराजकन्या तस्य अकस्मात् दृष्टिपथं गता। ततस्वस्या अद्भुतेन रूपेण विस्मयजनकेन सुगन्धन च मुग्धो महाराजस्तया सह विवाहं कर्तुकामस्तस्याः पितरम् अयाचत ।
देवव्रत: – ततस्तेन किं कथितम् ?
अमात्यः – ततस्तेन कधितम् – महाराज। ईदृशः सम्बन्धः कस्य अप्रियो भविष्यात पर भवता सह सत्यवत्याः तदेव विवाहं करिष्यामि यदा भवदनन्तरं अस्याः एव पुत्रो राजा भाव “इति भवान् प्रतिज्ञां कुर्यात् ।”
देवव्रत: – ततो महाराजः किम् अवोचत् ?
अमात्यः – ततो महाराजः किमपि उत्तरं न दत्त्वान । ततश्च आगत्य “कथं ज्यष्ठ पुत्र सत्यवतीसुताय राज्यं देयम् प्रतिज्ञाऽभावे च कथं सत्यवती लभ्यते इत्येव अहर्निशं चिन्तयति। – तस्य चिन्तायाः दुःखस्य च कारणं वर्तते ।
देवव्रतः – महामात्य। यदि एतावन्मात्रमेव कारणं वर्तते तर्हि सर्वथा अकिारच इदानीमेव अहं तस्य अपनयनाय उपायं करोमि ।
(प्रणम्य निष्क्रान्त:)
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तृतीय दृश्यम्
(वने धीवरराजस्य समीपे देवव्रतस्य गमनं भवति, घीवर: जलनिरीक्षण-परायणस्तिष्ठति)
धीवर: – (देवव्रतं दृष्ट्वा – स्वगतम्) अहो तेजस्विता अस्य कुमारस्य । (प्रकटम) कमार ! भवतः परिचयं आगमनकारणं च ज्ञातुमिच्छामि।
देवव्रतः – दाशराज ! महाराजस्य शन्तनोः प्रियः पुरोऽहं देवव्रतनामा । इदश्च मम आगमनकारणम् । अस्ति काचित् भवतो दुहिता सत्यवती नाम परमसुन्दरी।
धौवर:- आम्, अस्ति एका।
देवव्रतः- तया सह विवाहार्थम् अस्माकं तातपादा: चिन्ताकुला: सन्ति । तद् भवान् सत्यवतीप्रदानेन महाराज चिन्तामुक्तं करोतु इति निवेदनं कर्तुम् अहं भवतः समीपमुपागतोऽस्मि ।
धीवर:- महाराजकुमार ! भवतः पितृश्चिन्ताया अपनयनस्य उपायस्तु भवतामेव हस्ते वर्तते ।
देवव्रतः- तत् कथमिव?
धीवर:- यतो हि महराजशन्तनोः पश्चात् सत्यवतीपुत्र एव यदा राज्याधिकारी भविष्यति तदैव अहं तस्या महाराजेन सह विवाहं करिष्यामि इति में प्रतिज्ञा अस्ति । भवन्तश्च महाराजश्च ज्येष्ठपुत्रा इति धर्मत एवं राज्याधिकारिणः । तत् कथमहं सत्यवतीपुत्रस्य राज्यलाभं सम्भावयामि? इयमेव सत्यवतीप्रदाने महती बाघा अस्ति ।
देवव्रतः- सदाढर्यम्! दाशराज। इयं काचिद् बाधा नास्ति । भवतः प्रतिज्ञापूरणाय अहं बद्धपरिकरोऽस्मि । महाराजाऽनन्तरं सत्यवतीपुत्र मन राज्याधिकारी भविष्यति । इत्यह शतशः सर्वषा पुरस्तात् उद्घोषयमि । तद् भवान् निर्भयो वा विवाहाय कृतनिश्चयो भवतु।
घीवर:- सत्यमेतत् । नास्ति भवतः प्रतिज्ञायां मम सन्देहलेशोऽपि । परन्तु भवदनन्तरं यदि भवतः कश्चित् पुत्रो भवत्प्रतिज्ञाभत कुर्यात् तहिं सत्यवतीपुत्रस्य का गतिः भविष्यति ? .
देवव्रत:- अस्तु नाम, इममपि भवतो भयं सन्देह च अहं निवारयामि । सत्यवतीसूनुरेव राज्याधिकारी भविष्यति इति पूर्वमेव प्रतिज्ञातं मया । तथापि यदि ते मनसि एतादृशी आशङ्का वर्तत तहिं पुनरपि अहं भीषणं प्रणं करोमि यत् अहं कदापि विवाह न करिष्यामि, आजीवनं च अखण्डितं ब्रह्मचर्यव्रतं धारयिष्यामि ।
अद्य प्रभृत मे दाश! ब्रह्मचर्य भविष्यति ।
अपुत्रस्यापि मे लोका भविष्यन्क्षया दिवि ।।
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अपि च –
परित्यजेदं त्रैलोक्यं राज्यं देवेषु वा पुन ।
यद्वाऽप्यधिकमेताभ्यां न तु सत्यं कदाचन ।।
त्यजेच्च पृथिवी गनधम् आपश्च रसमात्मनः।
ज्योतिस्तथा त्यजेद् रूपं वायुः श्पर्शगुणं त्यजेत् ।।
प्रभां समुत्सृजेदर्को धूमकेतुस्तथोष्मताम् ।
त्यजेत् शब्द तथाऽकाशः सोमः शीतांशुतां त्यजेत् ।
विक्रम वृत्रहा जह्यात् धर्म जह्याच्च धर्मराट् ।।
न त्वहं सत्यमुत्स्रष्टुं व्यनसेयं कथञ्चव ।।
(नेपथ्ये साधुवदः आकाशात् पुष्पवृष्टिश्च भवति)
घीवर:- (बद्धाञ्जलिः) अहो राजकुमार! धन्योऽसि, आदर्शपुत्रोऽसि । भवादृशैरेव पुत्रैः इयं भारतवसुन्धरा आत्मानं धन्यधन्यां मनुते । महानुभाव । गम्यतामिदानीम् । अचिरादेव अहं महाराजस्य मनोरथं पूरयामि।
प्रथम दृश्य
स्थान – राज भवन
(उदासीन, और चिन्न निमग्न देवव्रत का प्रवेश)
देववत (स्वयं से) अहो, न जाने किस कारण से आज मेरे पिताजी का पैर चिन्ताकुल और उदासीन दिखाई पड़ रहा है। क्या उनमें कोई शारीरिक पीड़ा अथवा कुछ मानसिक कष्ट है। इसलिए आमत्य के समीप जाकर पिता के शोक का कारण पूछता हूँ। पिता की चिन्ता दूर करना और उनको खुश करना पुत्र का प्रधान कर्तव्य होता है।
पिता ही स्वर्ग है पिता ही धर्म है, पिता ही सबसे बड़ा तप है। पिता में प्रीति आने पर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
धिक्कार है, उस बेटा को जो पिता की प्रसन्नता के लिए सक्षम होकर भी वैसा नहीं कर है। उस बेटा को जन्म लेना ही किस काम का जो पिता को चिन्ता से नहीं उबार सके।
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द्वितीयं दृश्य
(स्थान- आमत्य भवन)
आमात्य- (आते भीष्म को देखकर) अहो, राजकुमार देवव्रत। आवें, इस आसन की शोभा बढ़ावें।
(देवव्रत प्रणाम कर बैठता है) राजकुमार। क्या कारण है इस असमय पर आपके आने का।
देवतत- आमत्य श्रेष्ठ! आज कुछ नई बात देखकर विस्मित मन से उसके समाधान के लिए आपके समीप उपस्थित हूँ।
आमत्य- (आश्चर्य से) वह क्या है?
देवव्रत- सारे सुख साधनों के होते हुए भी न जाने आज किस कारण से मेरे पिताजी का पैर दुःखी और चिन्ताकुल लग रहा है। उसी कारण को जानना चाहता हूँ और जानकर उसे दूर करना चाहता हूँ।
आयत्य- आप जैसे आर्यपुत्र के लिए यह उचित ही है।
देवव्रत- इसलिए यदि आप इसका कारण जानते हैं तो उसे बताने से मैं धन्य हो जाऊँगा।
आमत्य – राजकुमार! सही जानता हूँ। इसका कारण तो आर्यपुत्र आप ही हैं।
देवव्रत- (आश्चर्य से) मैं ही कारण हूँ? हाय, धिक्कार है मुझको। वह किस प्रकार का है? स्पष्ट करें।
आमत्य- राजकुमार। एक दिन महाराज नौका विहार खेलते समय यमुना नदी के तीर पर घूम रहे थे। उस समय दूर से ही अपने शरीर की सुगन्ध से सम्पूर्ण वन को सुगन्धित करतो हुइ सत्यवती नाम की परम सुन्दरी धीवर राज की कन्या अकस्मात उनकी नजर में आ गई। उसके बाद उसकी अद्भुत रूप और विस्मय पैदा करने वालो सुगन्ध से मुग्ध महाराज ने उसके साथ विवाह करने की इच्छा से उसके पिता से याचना की।
देवव्रत- इसके बाद उनके द्वारा क्या कहा गया ?
आमत्य- इसके बाद उनके द्वारा कहा गया- महाराज। इस प्रकार के सम्बन्ध स किसका अप्रिय होगा, परन्तु मैं आपके साथ सत्यवती का विवाह तभी करूँगा जब आपके बाद इसका पुत्र राजा होगा। “यह आप प्रतिज्ञा करें”।
देवव्रत- इसके बाद महाराज ने क्या बोला?’
आमत्य- इसके बाद महाराज ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और इसके बाद आकर ”कैसे ज्येष्ठ पुत्र को छोड़कर सत्यवती पुत्र को राज्य देना इस प्रतिज्ञा के अभाव में और कैस सत्यवती को पाया जा सकता है, इसी विषय में दिन-रात चिन्तन करते रहते हैं। यही उनकी चिंता और
दु:ख का कारण है।
देवव्रत- हे महामंत्री ! यदि मात्र इतना ही कारण है तो इसके लिए कुछ नहीं करना है। इसी समय मैं उसको दूर करने का उपाय करता हूँ।
(प्रणाम कर निकलता है।)
तृतीय दृश्य
(वन में धीवर राज के समीप देवव्रत का जाना और पुकारना, धीवर जल निरीक्षण में लगा है)
धीवर (देवव्रत को देखकर अपने-आप) इस राजकुमार की तेजस्विता तो अजीब है। (प्रकट होकर) कुमार! आपका परिचय और आने का कारण जानना चाहता हूँ।
देवव्रत- हे दाशराज! महाराज का प्रिय पुत्र, देवव्रत मेरा नाम है और यह है मेरे आगमन का कारण आपकी कोई सत्यवती नाम की परम सुन्दरी कन्या है।
धीवर- हाँ, है एक।
देवव्रत- उसके साथ विवाह के लिए मेरे पिता की चरणे चिन्ताकुल हैं। इसलिए आप सत्यवती को प्रदान कर महाराज को चिन्तामुक्त करें, यही निवेदन करने के लिए मैं आपके समीप आया हूँ।
घीवर- महाराज कुमार। आपके पिता की चिन्ता दूर करने का उपाय आपके ही हाथ में है।
देवव्रत- वह किस प्रकार का?
धीवर- यही कि महाराज शान्तनु के पश्चात् सत्यवती का पुत्र ही जब राज्याधिकारी होगा तब ही मैं उसकी महाराज के साथ विवाह करूँगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है और आप महाराज के ज्येष्ठ पुत्र हैं। धार्मिक रूप से आप ही राज्य के अधिकारी हैं। इसलिए मैं सत्यवती पुत्र के राज्य लाम की सम्भावना कैसे मान लूँ । यही सत्यवती प्रदान के मार्ग में बड़ी बाधा है।
देवव्रत- (दृढ़ स्वर में) दाशराज! यह कोई बाधा नहीं है। आपकी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए मैं दृढ़ संकल्प हूँ। महाराज के बाद सत्यवती का पुत्र ही राज्याधिकारी होगा यह मैं सैकड़ों बार सबों के सामने उद्घोषणा करता हूँ। इसलिए आप निर्भय होकर विवाह के लिए निश्चय कर लें।
धीवर— यह सत्य है। आपकी प्रतिज्ञा में मेरा तनिक भी संदेह नहीं है। परन्तु आपके बाद, यदि आपका कोई पुत्र आपकी प्रतिज्ञा भंग कर दिया तो सत्यवती पुत्र की क्या गति होगी।
देवव्रत- ऐसा नहीं होगा। यह भी आपका भय और संदेह को मैं दूर कर देता हूँ। सत्यवती के पुत्र ही राज्याधिकारी होगा ऐसा मेरे द्वारा पहले ही प्रतिज्ञा की जा चुकी है। इसके बाद भी यदि आपके मन में इस प्रकार की शंका है तो पुन: मैं भीषण प्रण करता हूँ कि मैं कभी भी विवाह नहीं करूंगा और आजीवन अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत धारण करूंगा।
हे दाशराज । आज दिन से मैं ब्रह्मचर्य को धारण करूँगा। बिना पुत्र का भी मुझे अक्षय स्वर्ग लोक प्राप्त होगा।
और भी इससे भी अधिक बात है तो मैं पुनः घोषणा करता हूँ तीनों लोकों को छोड़ सकता है, देव लोक में स्थान का त्याग कर सकता हूँ फिर यह राज्य क्या है। लेकिन मेरी सत्य प्रतिज्ञा कभी असत्य नहीं होगी। भले ही— पृथ्वी गन्ध को छोड़ दे, जल अपने में रस का परित्याग कर दे, प्रकाश अपना रूप त्याग दे, वायु अपना स्पर्श गुण त्याग दे, सूर्य अपनी प्रभा त्याग दे, धुमकेतु अपनी गर्मी त्याग दे, आकाश शब्द को त्याग दे, इन्द्र अपना पराक्रम त्याग दे, धर्मराज अपना धर्म छोड़ दें। लेकिन मैंने जो आपको सत्य कहा है वह कभी असत्य नहीं होगा।
(नेपथ्य में ‘धन्य हो’ आकाश से पुष्पवृष्टि होती है)
धीवर- (हाथ जोड़कर) हे राजकुमार। तुम धन्य हो, आदर्श पुत्र हो। आप जैसे ही पुत्र से यह भारत की भूमि अपने-आप को धन्य-धन्य मानती है। महानुभव इस समय आप जाएँ। शीघ्र ही मैं महाराज की मनोरथ को पूरा करता हूँ।
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